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Father की कविताएँ



पिताजी की खटिया by अमित मिश्रा

प्रकृति में सने हुए मांग रहे थे बादल
 हर सुबह हाथ जोड़े बातें करते ईश्वर से कि आज क्या पड़ेगा पानी?
सब को सब चाहिए था पर उनको सिर्फ बादल और थोड़ी सी हवा
उनका होना ही है सब कुछ न ज्यादा न कम बस इतना कि हम अनाथ ना कहलाएं 
खासकर मुझे मेरे पिता बस जिंदा और साबुत चाहिए थे
 जब तक टंगी हुई है यह पृथ्वी यहां
उनमे ऐसा कुछ संजीदा भी तो नहीं जिसका कोई जिक्र करना चाहे भरी महफिल
बड़े मजाकिया हैं पिताजी, कभी तो उनका इतना अल्लहड़पन नकली लगता है
शक है अंदर सब ढका हुआ सब छिपा हुआ
ऐसे कैसे कोई दुनिया भर घूमा हुआ है खटिया पर
इतना जानता है बिना जाने अपने पड़ोसी को
गर है अकेला तो फिर दिखती क्यों नहीं सिकुड़न
कुछ नहीं चाहता तो नजर क्यों रखता है ऊपर
मुझे कभी तो देखना था उनका वह आम रोता बिलखता अंदर
पर वह हो गए हैं बरगद जिस पर कोई अपना मचान डाल सो जाये
फिर एक दिन जब मुझे छापा गया किसी और कलम से
तब पता चला कि संतान कम मासूम होती है
वे लगा रहे हैं गुलाटिया हिनाहिनाया करते हैं बिना वजह अकेले में
अपने में ही कहीं अपने सत्तर सालों की पोटली लिए जो मिली थी इन्हें कमलनयन से
देखो तो पोटलिया सभी की है खाली ही
बस फर्क है कि इन्हें पता है कि खिचता रहता है सब सामान नीचे से
पिताजी से मिलो तो लगता है कि वे सिर्फ उतार रहे हैं कर्ज़ धरती का
पाकर या खो कर और फिर अंतिम सांस लेंगे सब भर कर


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