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Life की कविताएँ



मौन by सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

बैठ लें कुछ देर,
आओ,एक पथ के पथिक-से
प्रिय, अंत और अनन्त के,
तम-गहन-जीवन घेर।
मौन मधु हो जाए
भाषा मूकता की आड़ में,
मन सरलता की बाढ़ में,
जल-बिन्दु सा बह जाए।
सरल अति स्वच्छ्न्द
जीवन, प्रात के लघुपात से,
उत्थान-पतनाघात से
रह जाए चुप,निर्द्वन्द ।

गुफ़्तगू by भारती बंसल

जिंदगी में ज़्यादा कुछ नहीं चाहिए
बस एक दिन जो सिर्फ़ पहाड़ों को देखते हुए गुज़रे, एक कप चाय के साथ और ढेर सारी कहानियाँ जिसमें
छिपी हो एक गुफ़्तगू
कहीं सूखी नदियों की बात हो तो कहीं बिखरते बादलों की
और जब कोई दोस्त पूछे "तुम कैसे हो"
तो यकीन हो कि जितना तुम बताना चाहते हो
उतना ही वो सुनना
बात हो अकेलेपन की, आँसुओं की, थोड़ी मुस्कराहट और ढेर सारी ख्वाहिशों की
कहीं ठहरी हुई जिंदगी की तो कहीं तूफानों की
और अगर कोई बोले कि काफ़ी समय हो गया है, अब घर आ जाओ
तो हिम्मत हो ये बताने की कि अभी सिर्फ़ दिन शुरू हुआ है
अभी तो रात लंबी है
अभी तो तारों ने सिर्फ़ गुनगुना शुरू किया है
धरती ने पैर थाम लिए हैं अपने
कुछ आराम तो उसे भी हो
जिसने सूरज की गर्मी को अपने आंचल में छिपा कर रखा है
अभी तो उसकी खुशी में लहराना बाकी है

संघर्ष by राजनंदिनी राजपूत

ना ही रूप-सौंदर्य में कमी थी
ना वाक-चातुर्य में

मैं चाहती
तो किसी का भी हाथ थाम सकती थी

लेकिन
मैंने संघर्ष चुना
स्वाभिमान चुना

जीवन को तपस्या बनाया !

लेकिन तुम मेरे इन गुणों को कभी देख नहीं पाओगे

पुरुष प्रधान समाज में
स्त्री का स्वाभिमानी होना
उद्ददंडता की श्रेणी में आता है

और मेरा स्वाभिमानी होना
तुम्हें अखरता है
अपमान लगता है

मैं तुम्हारी चेतना के द्वार नहीं खोल सकती
इसका प्रयत्न तुम्हारे हाथों में हैं

ना ही मैं स्वयं
कुछ सिद्ध करना चाहती हूं

ये समय साक्षी है
मेरी तपस्या का
मेरे प्रेम का

अगर कभी कोई मुझे पढ़ कर
ये महसूस करें कि
वो दुनिया के महान विचारों को पढ़ रहा है

तो शायद
मेरा जीवन सफल हो जाए !

मेरी *मैं* by अंकित अरोरा

मुझपे हर रोज़ इल्ज़ाम लगाने की
क्या सज़ा दूँ उनको?

मुझपे हर रोज़ इल्ज़ाम लगाने की
क्या सज़ा दूँ उनको?

मेरी *मैं* को पता है वो गलत नहीं,
पर *मैं* ये मानने की भी तल्बगार नहीं।

भावनाएँ by ईशा पठानिया

महीनों की मशक्कत के बाद लोगों की उम्मीद टूट जाती है, 
अवसर आपके दरवाजे पर सिर्फ एक बार दस्तक देता है।

अपने जज्बातों को अंदर दबने मत दो,
तनावपूर्ण स्थितियों से आपको छिपना नहीं चाहिए।

यदि आप कई बार असफल हुए तो कोई बात नहीं,
मेहनत करो, आप  एक दिन सफल हो जाओगे।

अपने परिवार या दोस्तों के साथ भावनाओं को साझा करें,
एक दिन मुश्किलों का अंत होगा।

जीवन के हर पल का आनंद उठाओ जैसे कि यह आखिरी पल   है,
अपने जीवन को अपने अतीत से प्रभावित न होने दें।

आखिरी सांस तक लड़ो,
ईश्वर से प्रार्थना करें और विश्वास रखें।




अपने दिल की सुनो by वरुण वर्मा

तपता है शरीर सूरज की गर्मी से 
जलता है मन उस मलाल से जो तू हो न सका अपनी मर्जी से। 
समझ नहीं आता क्या खेल है जीवन का? 
क्या ज़िन्दगी बीत जाएगी यूं ही अपनी खुदगर्जी से।।

क्या जीना सिर्फ कमाना दो वक्त की रोटी है? 
इच्छाएं तो इंसान के मन में और भी कई होती है। 
जकड़ा है तुझे शायद तेरे नुकसा-ऐ-नजार ने। 
हिम्मत कर ऐ बंदे नवाजा है तुझे भी काबिलियत से उस परवर दिगार ने।
मिलती है शोहरत अपनी मेहनत से ना किसी की अर्जी से
तपता है शरीर सूरज की गर्मी से  
जलता है मन उस मलाल में जो तू हो ना सका अपनी मर्जी से। 

नवाजा तुझे खुदा ने परिवार और रोजगार की दौलत से 
पाना चाहता है तो अब नई बुलंदियां कुदरत की रहमत से 
जैसे बीत गया अब तक वक्त उसे भूलना होगा, 
बाजू ऊपर करके परिस्थितियों से लड़ना होगा, 
रुकावटें आएंगी और रास्ता भी रुकेगा
लेकिन सच्ची मेहनत और लगन से कामयाबी का फूल भी खिलेगा।
 अब तक तो जिया फरमान ऐ जिंदगी मगर अब जियेगा अपनी मनमर्जी से।
तपता है शरीर सूरज की गर्मी से 
जलता है मन उस मलाल में जो तू हो न सका अपनी मर्जी से।
अब तक तो जिया फरमान ऐ जिंदगी मगर अब जियेगा अपनी मनमर्जी से।





ये कांपते हाथ by प्रणव प्रतीक

टूटी - फूटी कटोरी मेंझनझनातेचदं सि क्के
कांपतेपरैों पे, घि सेदांतों सेनि कलती कराह
सफेद उलझेबाल, लटकती झर्रिुर्रियों सेगाल
आसं ूभरेनि गाहों को फैलात,े येकांपतेहाथ
हफ्तों की भखू सेतड़पती, सखू ती अतं ड़ि यां
अधमरी गोश्त मेंबदलत,े ढलतेशरीर के ढांचे
खोखली और दि खावटी रि श्तों के छूटतेसाथ
दि न दोपहर नि वालेको तरसत,े येकांपतेहाथ
जतन की परवरि श और लगाव का उपहार
आश्रम के खर्च तलेदबा हर आभार-उपकार
महीनों, फि र सालों बाद नजर आए औलाद
लटुेबढ़ुापेमेंभी दआु ऐं देत,े येकांपतेहाथ
नाजों सेपाला, जि सेपलकों पर बि ठाया था
भरी सभा कीमत लगा आए उसकी जि दं गी
आखं समदंुर टपकात,े कन्यादान करतेहाथ
अपना कलेजा नि काल सौंपत,े येकांपतेहाथ
भरी दोपहरी मजदरूी, रात पहरेदारी का काम
बच्चों की हरेक ख्वाहि शों को परूा करता बाप
तीन पहर की थकी कोशि शों सेचलतेघरबार
खदु भखू ेरह घर का पेट भरत,े येकांपतेहाथ
हर शहर, हर मोहल्ले, हर घर की दबी दास्तान
कहींपछतावेतो कहींउम्मीद मेंबीत चकुे साल
कि स चमत्कार को ढूंढती समाज की हर नजर?
यहां-वहा,ं हर जगह दि ख जात,े ये कांपते हाथ।





यही हूँ में दिख जाऊगी by यश चौहान

अरे क्यूँ कहता की नहीं हूँ में
क्यूँ पूछता हे की कहा हूँ में
देख तो जरा अगल बगल, यही हूँ में
दिख जाऊगी
उसमे जो खाना खिला देता हे किसी भूखे कों
मिल जाऊगी
उसमे जो पानी पीला देता हे किसी प्यासे कों
और सुन
ऐसा मत कहना की मर गयी हूँ में
जरा झांक तो अपने भीतर , तेरे अंदर तो जिन्दा हूँ ना में 
दिख जाऊगी
उसमे जो कर देता हे मदद बिना किसी स्वार्थ के
मिल जाऊगी
उसमे जो बिना किसी इच्छा के कर रहा हे ईश्वर का नमन
और फिर भी तू
कहता की  नहीं हूँ में
पूछता हे की कहा हूँ में
देख तो जरा अगल बगल, यही हूँ में

एक और कोशिश by कीर्ति पाण्डेय

माना कि हर कोशिश बर्बाद हो रही है
 हर बार हार हो रही है 
किस्मत का दरवाजा अभी खुला नहीं
 अपनों का साथ अभी मिला नहीं
 भले ही आगे सिर्फ अंधेरा है
 पर हार मान लेना तेरी फितरत तो नहीं
 तू इतना कमजोर तो नहीं 
रख  खुद पर विश्वास
उठ साहस कर 
और कर फिर एक और कोशिश 
एक नई कोशिश एक नया हौसला
 जो देगा तेरे पंखों को नई उड़ान 
झुकेगी दुनिया करेगी तुझे सलाम 
बस रख खुद पर  दृढ विश्वास 
ओर बढ़ा अपने कदम नई सफलता की ओर 
क्योंकि कहते हैं ना 
लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती
 और कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती

ज़िन्दगी by तुषार कौशिक

ज़िन्दगी तस्वीर भी और तकदीर भी है 
फर्क बस रंगो का है 
मनचाहे रंगो से बने तो तस्वीर 
और अनजाने रंगो से बने तो तकदीर

पुरानी यादें by कीर्ति पाण्डेय

कितनी मीठी होती है ना पुरानी यादें 
वो  बचपन वो दोस्ती और मासूमियत 
भले ही आज कितना भी अच्छा हो
 लेकिन सुकून तो उन्हीं पुरानी यादों में है 
यह समय की चाल भी बड़ी अजीब है ना 
कभी रूकती ही नहीं 
ढल जाती है राते बीत जाते हैं दिन 
बस रह जाती हैं वो पुरानी यादें वो पुराने दिन

दर्पण by पूजा गौतम

डुगडुगी बजायो अंबर के नीचे
स्याह जीबन पूरी कर बी
लाल गोटन की सारी पहनू
कछु तो भी कर मेरे मन की

कहे कोयरिया..
हिस्से तोरे कछु न आयो
विपदा भरी संताप भयो
तू बैठन जग प्रेम रिखो
तू भी चिरिया मेरे बन की

पूरा जग तेरा होबे रे
काहू बंधन में बांध रही
डौर खींचो तेरी ओर न हाेबे
ऐसन भाली बिना ब्याह रही

मैं जानू तेरी बिपदा री
ढोते जीबन की मांग रही
तू लाबे प्रेम्हु नदियन बहती
फिर काहू बिन जल सूख रही।।     

मेरी ऐनक टेढ़ी है by पूजा गौतम

हां ! मैं आंख का अंधा
क्षतिभूत होता तेरे चरणों में गिर गया
पुतलियों को नोचे
संपूर्ण जीवन का सच जान गया

तू विलुप्त होते वचनों से
क्षुब्ध हो मेरी काया से
मैं जीवाणु फैलाऊंगा
तेरे अंदर भी....

अंधेरा ओझल हो चला
विरक्ति तेरी आसक्ति बन चली
नोच मेरी अश्रु धाराओं को
श्वास बन पी रहा हूं उसे

मैं निर्लज! स्वांगों के 
वेग में धसा रहा
तू विरक्त वियोमिनी
नभों की परिक्रमा कर गई

अधिकारों की मांग में
मेरी ऐनक टेढ़ी रही।।

समय बदलते देर नहीं... by सनद झारिया

जहां पानी शांत हो वहां गहराई होती है ||
बहुत सी कश्तियाँ इसमें समाई होती हैं ||

जब दुख हो तो चेहरे पर एक हंसी होती है ||
आँसू तब भी निकलते हैं जब कोई ख़ुशी होती है ||

सुबह होने से पहले रात गहरी होती है ||
कभी एक पल में जिंदगी ठहरी होती है ||

हर परिस्थिति में समान रहना वीरता की पहचान होती है ||
छोटे परिंदे ही शोर मचाते हैं,शांत तो बाज की उड़ान होती है ||

ता-उम्र ख्वाहिशें जिंदगी से लड़ी होती हैं ||
जब पूरी होने को आएं तो सामने मौत खड़ी होती है ||

जीवन की हर ख़ुशी मौत की जासूस होती है ||
शायद इसीलिये जिंदगी कम लोगो को महसूस होती है ||

चुप रहो by अमित मिश्रा

वे कहते हैं चुप रहो क्योंकि चुप रहना ही जीवन के खिलाफ लड़ने का सबसे सक्षम तरीका है

इसलिए चुप रहो

अपने जबड़े इतने कस कर बंद रखो कि लहू भी बाहर ना आ सके

वे कहते हैं कि उन्हें मालूम है कैसे तुम्हारे आत्म स्वाभिमान को रोड पर नंगा किया गया

और सच मानिए उन्हें भारी खेद भी है

पर तुम तो हो अभी भी जीवित और आगे भी रहोगी आशस्वित 

भेड़िया इस शहर का चक्कर हर रात लगाता है

उसके नाखूनो की आवाज़ें बढ़ती जा रही है

तुम्हारा अस्तित्व गली के कोने जैसा हो गया हैं, अपवित्र, असुरक्षित और कैद  

तुम बस चुप रहो

और करो प्रतीक्षा अपनी प्राकृतिक मृत्यु की  

डहेलिया के बीज by अमित मिश्रा

जब आठ बीज रखें डहेलिया के हाथों में लगा मानो बरसों से था इन्हे किसी हथेली का इंतजार
काले नुकीले चुभते हुए मेरी उंगलियों को
किए पड़े थे प्रदर्शन लगाते रहते गुहार मिट्टी की
ये जो कैद थे बंजर गहरी दरारों के सन्नाटे में
गुमसुम से सोए सोए करते इंतजार एक स्पर्श का
आठ आंसू मेरे भी टपके जब याद आया कि मैंने तो बेच डाली है अपनी धरती सौदागरों को
जो कूटेंगे इसमें लोहा और गारा जो सलाखें डालेंगे इसकी गहराइयों तक
सुनो, बेजान नहीं होती धरती, गर होती तो कैसे दे देती है ताकत
एक तिनके से बीज को जो उठा देता है सर, कर उठता है धार धार ढके आसमान को
माँ होती है अध्यापक होती है धरती, गर ना होती तो कैसे मिलता आकार
डहेलिया को डहेलिया का, कैसे समेट लेती इतना कुछ अपने में बिना फूटे
अक्सर उठ जाता हूँ आधी रात, जब दराज में पड़ी पुड़िया से चीखें सुनाई देती है उन आठ डहेलिया के बीजों की
अब कहां ले चलूं इन्हें, किस की क्यारी में खोस आऊं चुपके से देर रात
कैसे ले आऊं अपनी धरती वापस सौदागरों से
कब तक दूँ इन्हें झूठे वादों का सच
कब तक होगा मेरा जाना वापस इनके गांव, कब तक.. कब तक…
या फिर कस लूँ इन्हे मुट्ठी में और खोज कोई गंगा
सहर जाऊं इनके साथ
टिक जाऊं फिर से उसी धरातल से जो कभी हम दोनों का ही तो था

तवायफ़ by अमन त्रिपाठी

मैं लिखता 
दर्द उस तवायफ़ का 
जो कोख में लिये एक नवजात को
अपना जिस्म बेचती है
मैं लिखता
उसके हिस्से की बची ज़िंदगी 
जो आगे,
कई मर्दों की आग से राख होगी
मैं लिखता
फ़र्श पर पड़ी सिगरेट की राख को
जिसमें हज़ारों पैरों के निशान 
और 
एक औरत के बाल उलझे पड़े हैं
मैं लिखता
उस कपड़े की चीर देखकर
जो नंगे स्तनों के गहरे घाव पर बँधा है 
जिसके माँस के टुकड़े 
किसी नाख़ून में मैल के साथ धँसे हैं
मैं लिखता 
दीवार पर पड़े ख़ून के धब्बे देखकर
जिसपर हर रोज़ पान थूका जाता है 
पर खून के धब्बे 
आज भी गहरे हैं 
लाल हैं 
जिसपर मैं लिखता
अगर किसी तवायफ़ की कोख से जन्म लेता 
पर मैं या कोई,
नहीं लिखता
क्यों??


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