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Sad की कविताएँ



विरह योग by पूजा गौतम

रूष्ट होते वचनों से          
केश खींचें निकाली गई            
विरह अग्नि में भस्म जली
अपमानित जन बांधी गई
कूट कूट मिथ्या ही लागे
अपमानित ऐसे की जाती
खेल खेल में दिल तोड़े
जैसे मोहरे बदली जाती
पत्नी धर्म निभाए चली
फरेब की सीमा में आती
छोड़ना जिसे छोड़ेगा हर पल
चिंगारी की ज्वाला भड़काती
गुनाह बस इतना करे              
दिल थामे उसे दे जाती
जो जीवन में रुका ही बैठा
चेष्टा उसकी आगे न जाती
आसान नहीं साथ निभाना
मुख बोले वचन न निभते
ऐसा तप साथ ही बनता
अकेले तन्हाई चली आती
कठिन राह में अकेले बढ़ी
न कोई हाथ थामे न जाने
लोगों की निंदा सुनती रही
कटाक्ष मेरी सोच में न आती
वक्त की सुइयां करे हूं पीछे
उन पलों की गुहार लगाती
असहाय देह में रूह पड़ी
एकल जीवन बैठ चलाती।     

बिछोह by पूजा गौतम

आजोहू मोरे प्रियतम
सखा बन चल लेबे
मोरी पायलिया बिलख रही
तोहे पास बुलावत

चंद्र लोचन नयनों में
कजरिया जोहु सजावत
इठलाती कमरिया लचक रही
घनघोर बदरिया आ जावत

परदेस न संग लेके गयो
अलग करयो समझावत
के दो जून रोटी भाली
जौउ फिकर तोहे न लागत

सावन भी लौटु है बेख
जे इस माह भी न पायो
काहे उन बचनो से बांधे मोहू
जे ब्याह कर दूरी अपनावत

विधवा विलाप by पूजा गौतम

अल्पायु में पति देहांत
न गुज़रे बिन एक दिन
पीपल की छाया में बैठी
हर पल दिन मैं गिन गिन

मन नीरस होवे मेरा
उबटन अब न भावे
सफेदी लपेटे घूम रही मैं
केश काटे मानुष चले आते

पीड़ा छुपाए दिल में रखती
एक निवाला हलक से न उतरे
ज़मीन पे लेटी सोच रहीं थी
आंसू जीवन मेरे क्यूं चले आते

गांव में साख नहीं अब
नाक सिकौड़े गुज़र जाते
क्या जीवन यहीं खत्म है
लोग अपनी सोच बनाते

विधवा हूं मैं श्रापित नहीं
कटु वचनों में नहीं आती
नसीब की हेरा फेरी ये तो
समय का चक्र लकीरें घुमाती

ना सती बनूं ना मृत्यु अपनाऊँ
लेखा उस घर सबका है बनता
आडंबर में बांधों न मुझको
कुंठित शरीरों में फंसी ये जनता

भूत प्रेत मोहे न लिपटे थे
औरत को पीड़ा देते चलता
असहाय जीवन रौंदे था तू ही
किस मां का जना तू बनता

हारी नहीं बढ़ना सीखी हूं
सृष्टि मुझसे भी चलती
नियम प्रभु द्वार ही बनते 
सोच तेरी या कोई गलती

अभिशप्त बनी न जी पाऊं
आज़ादी की गुहार लगाती
पुष्पित बन खिलना चाहूं मैं
सूर्य देखन की आस लगाती

उड़ जाऊं नीले गगन में
इंद्रधनुषी रंगों में छुप जाती
तारों की माला मैं जो पहनूं
फिर से सुहागन देख हो जाती


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