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Amit Misra



अमित मिश्रा की कविताएँ


चुप रहो

वे कहते हैं चुप रहो क्योंकि चुप रहना ही जीवन के खिलाफ लड़ने का सबसे सक्षम तरीका है

इसलिए चुप रहो

अपने जबड़े इतने कस कर बंद रखो कि लहू भी बाहर ना आ सके

वे कहते हैं कि उन्हें मालूम है कैसे तुम्हारे आत्म स्वाभिमान को रोड पर नंगा किया गया

और सच मानिए उन्हें भारी खेद भी है

पर तुम तो हो अभी भी जीवित और आगे भी रहोगी आशस्वित 

भेड़िया इस शहर का चक्कर हर रात लगाता है

उसके नाखूनो की आवाज़ें बढ़ती जा रही है

तुम्हारा अस्तित्व गली के कोने जैसा हो गया हैं, अपवित्र, असुरक्षित और कैद  

तुम बस चुप रहो

और करो प्रतीक्षा अपनी प्राकृतिक मृत्यु की  

डहेलिया के बीज

जब आठ बीज रखें डहेलिया के हाथों में लगा मानो बरसों से था इन्हे किसी हथेली का इंतजार
काले नुकीले चुभते हुए मेरी उंगलियों को
किए पड़े थे प्रदर्शन लगाते रहते गुहार मिट्टी की
ये जो कैद थे बंजर गहरी दरारों के सन्नाटे में
गुमसुम से सोए सोए करते इंतजार एक स्पर्श का
आठ आंसू मेरे भी टपके जब याद आया कि मैंने तो बेच डाली है अपनी धरती सौदागरों को
जो कूटेंगे इसमें लोहा और गारा जो सलाखें डालेंगे इसकी गहराइयों तक
सुनो, बेजान नहीं होती धरती, गर होती तो कैसे दे देती है ताकत
एक तिनके से बीज को जो उठा देता है सर, कर उठता है धार धार ढके आसमान को
माँ होती है अध्यापक होती है धरती, गर ना होती तो कैसे मिलता आकार
डहेलिया को डहेलिया का, कैसे समेट लेती इतना कुछ अपने में बिना फूटे
अक्सर उठ जाता हूँ आधी रात, जब दराज में पड़ी पुड़िया से चीखें सुनाई देती है उन आठ डहेलिया के बीजों की
अब कहां ले चलूं इन्हें, किस की क्यारी में खोस आऊं चुपके से देर रात
कैसे ले आऊं अपनी धरती वापस सौदागरों से
कब तक दूँ इन्हें झूठे वादों का सच
कब तक होगा मेरा जाना वापस इनके गांव, कब तक.. कब तक…
या फिर कस लूँ इन्हे मुट्ठी में और खोज कोई गंगा
सहर जाऊं इनके साथ
टिक जाऊं फिर से उसी धरातल से जो कभी हम दोनों का ही तो था

देवभूमि

दिसंबर की सख्ती में टिमटिमाती पूरी और जवान दिल्ली
क्यों कभी याद दिलाती है मेरे दोस्त की नानी की जो बस लगती थी मेरी
जब उनको देखा सिर्फ उन्हें नहीं देख पाया
साथ दिखे उनके मस्तक के पीछे बर्फ से लदे पहाड़, जो थे उनसे भी प्राचीन
कच्चा आम खाया, चाय पी और निगल लिए ढेरों अपरिचित शब्द बड़ी विनम्रता से
फिर घूमने लगी सड़क नीचे की ओर, नसों से छीनने लगा खून, मेरा शहरी गाढ़ा काला खून
पहुंचा अपनी दीवारों में और एक दिन अचानक ऐसे ही सोच में डूब गया कि बस अभी नानी सो गई होगी क्या?
देवभूमि क्यों कहूं इसे यहाँ ऎसे कौन से देव है जो गंगा किनारे खरबूजे में नहीं बसते
यहाँ कौन से ऐसे काले पत्थर है जो समुंदर में डूब लिंगो से ज्यादा चिकने हैं
यहां कौन सा ऐसा मीठा पानी है जो ब्यास और झेलम में नहीं बहता
यहां तो बस है मेरे दोस्त की नानी जो बस लगती थी मेरी
यहां तो बस दूर से ढोल दमो और मुसलबाजा गुनगुनाता है कानों में
चुप पगडंडियों में चलो तो आधी याद कहानियां खुसपुसाती हैं
कभी दिन यहां काले और रात सफ़ेद होती हैं
तब पैर ठंडे और आत्मा और भी शीतल होती है
जब फूल खिलते हैं तो साथ में खिलती हैं लड़कियां
घास और फूस से लदी हुई दौड़ती हुई इन्हीं पहाड़ों पर
धूप इतनी सुस्त होती नहीं जितनी कर देते हैं चिलम के धुंए में यहां
रोटी इतनी जरूरी होती नहीं जितनी लगती है यहां
कोई चमकदार चांदी जैसा चेहरा किसी भारी पोशाक में लिपटा हुआ तन
मुझे नहीं याद जो मैंने देखा हो यहाँ
बस क्यों याद आती है मेरे दोस्त की नानी जो बस लगती थी मेरी
और याद आते हैं इस देवभूमि में न जाने कितने ही देवी देवता
जो इन सब में कहीं ना कहीं गश्त करते रहते हैं
इस पहाड़ से उस पहाड़ ठीक उसी रफ्तार से जिस रफ्तार से गश्त करती है जिंदगी यहां 

परिंदे

परिंदे उड़ गए सारे छत्ते हुए वीरान यूं ही
 आज कौन सा ऐसा काला साया दिखा इन्हें यूं ही
अरे इन से जाकर कहो कि आज तो सिर्फ एक ही लड़की गुम हुई है
 इस शहर से या बाजार से बस से या ऑटो से गांव से या शहर से, गिनती में पूरी पर सिर्फ एक
इतनी भी क्या बेरुखी है और है तो दिखलानी क्यों है और हमारा क्या हमने तो कुछ नहीं कहा किसी से
खुसपुसा लेते अपने घोंसलों में, पर उड़ गए, ये क्या?
यह तो सरासर अनकंस्टीट्यूशनल है
अब ग्लोबल वार्मिंग का क्या होगा? इकोसिस्टम का तो ख्याल रख लेते
पर परिंदे उड़ गए सारे छत्ते हुए वीरान यूँ ही एक के बाद एक
अरे इन से जाकर कहो भगौड़े पंछियों तुम्हें कहीं खुला आसमां नहीं मिलेगा
 हर आसमां में धुंआ है और फिर खलिश तो लड़की की शरीर की बनावट में ही है
आखिर लड़की की खाल ही असल लड़की है
फिर वुमन हेल्पलाइन है खाखी मिनटों में जाग जाती है
 ऍफ़ आई आर ईमेल कर दो, सब कुछ तो है
भाई साहब पगला गए हैं क्या? किससे बातें कर रहे हैं आप? कोई नहीं है यहां

बगावत

क्या है जो जमी हुई है मोटी खुरदुरी परत नदी के सबसे निचले हिस्से में, ये बगावत
अच्छा खासा चल रहा है दाना पानी क्यों कोई बिगाड़ रहा है सब
 ठंडी सी, अनजानी, सुलग रही, ये बगावत
शहद जैसी मिठास जो कल तक लग रही थी संजीवनी
 निगलि न जाए अब विष जैसी, ये बगावत
साथ रहने की आदत पर खा रहे थे कसमें
आज निकल पड़े झंडा लेकर जिंदगी तलाशने सब फूकेंगी, ये बगावत
सभ्य थे कल तक आंखें मूंदे कबूतर डैने फड़फड़ा रहे
लड़ा रहे सर पिंजरों से, लहू लहू, आगाज सूरज का, ये बगावत
कभी गेरुआ कभी लाल, कभी हरा सफेद
 बिलों में घुसे हुए चमकाते लोहा, ये बगावत
खोखले वादों की नई दुनिया में रखते पुराने थके ओझल कदम बिलबिलाते हुए, ये बगावत
मौत का डर अब और भी हो रहा है भीना
बरदाश्त और कितना बर्दाश्त कितनी झूठी, कितनी दोगली, ये बगावत

चितइ को धन्यवाद्

चितई गोलू से कोई खाली हाथ नहीं लौटता
पहली ही भेंट में मैंने भी अपनी अर्जी थमाने की सोची
आँखों के आगे झिलमिला उठी थी जिंदगी
 बस आज तो बोल ही देना था
लिस्ट लंबी थी समय कम था
तो सोचा पहले दो-चार सबसे जरूरी पहलुओं का जिक्र कर दूं
 हमेशा की तरह मेरी प्लैनिंग अचूक
मुझसे पहले और भी कई मिल गए थे चितई से लाखों इन हजारों सालों में
तभी, पहली नजर पड़ी एक छोटी और स्पष्ट चिट्ठी पर
 वह एक मां की थी जिसने अपनी अपाहिज संतान की अर्जी डाली थी
दूसरी चिट्ठी में था एक कभी न खत्म होने वाला इंतजार कोई खो गया था उनका
तीसरी में बेबसी, चौथी में टूटा हुआ दिल, पांचवी में अकेलापन और छटी में बर्बादी
फिर कई आई अर्जियां, प्रार्थनाएं, पढ़ ली सारी
जब किसी ने धक्का लगाया पीछे से तो सामने थे चितइ
और तब याद आयी मेरी सबसे गैर मामूली कोशिश
मेरी एक भूली बिसरी खुशी
मेरी अड़ियल जिद्दी सांसे
धन्यवाद चितई गोलू आज बस इतना ही

पिताजी की खटिया

प्रकृति में सने हुए मांग रहे थे बादल
 हर सुबह हाथ जोड़े बातें करते ईश्वर से कि आज क्या पड़ेगा पानी?
सब को सब चाहिए था पर उनको सिर्फ बादल और थोड़ी सी हवा
उनका होना ही है सब कुछ न ज्यादा न कम बस इतना कि हम अनाथ ना कहलाएं 
खासकर मुझे मेरे पिता बस जिंदा और साबुत चाहिए थे
 जब तक टंगी हुई है यह पृथ्वी यहां
उनमे ऐसा कुछ संजीदा भी तो नहीं जिसका कोई जिक्र करना चाहे भरी महफिल
बड़े मजाकिया हैं पिताजी, कभी तो उनका इतना अल्लहड़पन नकली लगता है
शक है अंदर सब ढका हुआ सब छिपा हुआ
ऐसे कैसे कोई दुनिया भर घूमा हुआ है खटिया पर
इतना जानता है बिना जाने अपने पड़ोसी को
गर है अकेला तो फिर दिखती क्यों नहीं सिकुड़न
कुछ नहीं चाहता तो नजर क्यों रखता है ऊपर
मुझे कभी तो देखना था उनका वह आम रोता बिलखता अंदर
पर वह हो गए हैं बरगद जिस पर कोई अपना मचान डाल सो जाये
फिर एक दिन जब मुझे छापा गया किसी और कलम से
तब पता चला कि संतान कम मासूम होती है
वे लगा रहे हैं गुलाटिया हिनाहिनाया करते हैं बिना वजह अकेले में
अपने में ही कहीं अपने सत्तर सालों की पोटली लिए जो मिली थी इन्हें कमलनयन से
देखो तो पोटलिया सभी की है खाली ही
बस फर्क है कि इन्हें पता है कि खिचता रहता है सब सामान नीचे से
पिताजी से मिलो तो लगता है कि वे सिर्फ उतार रहे हैं कर्ज़ धरती का
पाकर या खो कर और फिर अंतिम सांस लेंगे सब भर कर


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