लहरों का गीत by सुमित्रानंदन पंत
अपने ही सुख से चिर चंचल हम खिल खिल पडती हैं प्रतिपल, जीवन के फेनिल मोती को ले ले चल करतल में टलमल! छू छू मृदु मलयानिल रह रह करता प्राणों को पुलकाकुल; जीवन की लतिका में लहलह विकसा इच्छा के नव नव दल! सुन मधुर मरुत मुरली की ध्वनी गृह-पुलिन नांध, सुख से विह्वल, हम हुलस नृत्य करतीं हिल हिल खस खस पडता उर से अंचल! चिर जन्म-मरण को हँस हँस कर हम आलिंगन करती पल पल, फिर फिर असीम से उठ उठ कर फिर फिर उसमें हो हो ओझल!
कोई पार नदी के गाता! by हरिवंशराय बच्चन
कोई पार नदी के गाता! भंग निशा की नीरवता कर, इस देहाती गाने का स्वर, ककड़ी के खेतों से उठकर, आता जमुना पर लहराता! कोई पार नदी के गाता! होंगे भाई-बंधु निकट ही, कभी सोचते होंगे यह भी, इस तट पर भी बैठा कोई उसकी तानों से सुख पाता! कोई पार नदी के गाता! आज न जाने क्यों होता मन सुनकर यह एकाकी गायन, सदा इसे मैं सुनता रहता, सदा इसे यह गाता जाता! कोई पार नदी के गाता!
सूरज की पहेली किरण by कानू बुटाणी
जब सूरज की पहेली किरण धरती को करे रौशन सब बन जाते है मगन धरती को करे रौशन जब सुप्रभात होती है रोशनी की बरसात होती है खिलते हीरे और मोती है धरती बन जाये दुल्हन जंगल में सारे जानवर उठते है उबासी मारकर फिर ज़ोरों की अंगराई लेकर करते है दिन का आगमन अपने घोंसले से सब पंछी उठकर निकलते है पंछी अपना काम करने सब पंछी उड़े जब भर जाये गगन