जोरू का गुलाम by पूजा गौतम
उसके हाथ के कंपन से मेरी क्षुब्धता रूष्ट होती है मैं विलोम बना कब तक उसकी बात उल्टी दिशा में घुमाता रहूं चेहरे के पसीने में एक रुआई सी है बेलन की ऐंठ मेरे विस्तृत जीवन को रसोईघर से झांके देखती है जीवन पनपा मेरे अंदर उसके अंदर नाप तोल कर सौम्य सी प्रतिमा मेरी ज़रूरतों का अभिप्राय निकली मैं उसकी अर्धांगिनी बना स्वयं लज्जित क्यूं हो? मैं अभिप्राय हूं उसके मिलन का उसके कटोरे में मैंने भी आंसुओं को धोकर सुखाया है मारो मुझे और फांसी पर लटका दो मैंने एक औरत की पीड़ा खाई है।।